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रश्मिरथी-द्वितीय सर्ग

शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर, 
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर। 
जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन, 
हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन। 

आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं, 
शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं। 
कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन, 
कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन। 

हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है, 
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है, 
धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे? 
झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे। 

बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं, 
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं। 
सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर, 
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर। 

अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन, 
एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण। 
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली, 
लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।

श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है, 
युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है। 
हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार? 
जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार? 

आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को? 
या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को? 
मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है? 
या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है? 

परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, 
क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार। 
तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है, 
तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है। 

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला? 
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला? 
कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा, 
रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा! 

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल, 
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल। 
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का, 
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का। 

हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर, 
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर। 
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है, 
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।

कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है, 
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है, 
चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं, 
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं। 

'वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चालन, 
हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण। 
किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी, 
और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी। 

'कहते हैं, 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा, 
मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा? 
अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा, 
सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा। 

'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ, 
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ। 
इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी, 
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी। 

'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय, 
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय। 
विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर? 
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर। 

'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों? 
जन्म साथ, शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों? 
क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में, 
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌ग क्षत्रिय-कर में।

खड्‌ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे, 
इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे। 
और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है, 
राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है। 

'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की, 
डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की। 
औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को, 
परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को। 

'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों, 
और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों। 
रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें, 
बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें। 

'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले, 
भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले। 
ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है, 
और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है। 

'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है, 
ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है। 
कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके, 
धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके। 

'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है? 
यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है। 
चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की, 
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!

'सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है। 
जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है। 
चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय; 
पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय। 

'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे, 
ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे। 
अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले। 
सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले, 

'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी, 
कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी, 
इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा, 
राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा, 

'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी, 
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी। 
थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को, 
भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्‌ग की भाषा को। 

'रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है, 
ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है। 
इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्‌ग धरो, 
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो। 

'रोज कहा करते हैं गुरुवर, 'खड्‌ग महाभयकारी है, 
इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है। 
वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी, 
जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।

'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्‌ग उठाता है, 
मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है। 
सीमित जो रख सके खड्‌ग को, पास उसी को आने दो, 
विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो। 

'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ, 
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ। 
'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है, 
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है। 

'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या, 
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या? 
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल, 
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल। 

'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे, 
एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे। 
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी, 
तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी? 

'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं, 
मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं। 
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा? 
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा? 

'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता, 
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता। 
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे, 
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?

'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ? 
कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ? 
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान? 
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान? 

'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो? 
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो? 
मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं, 
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं। 

'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर, 
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर, 
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है; 
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है? 

'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात, 
छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात! 
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे, 
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।' 

गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा, 
तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा। 
वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने, 
और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने। 

कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे, 
बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे? 
पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था, 
बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।

किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती, 
सहम गयी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्वल छाती। 
सोचा, उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँगा, 
गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं लूँगा। 

बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे, 
आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे। 
किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में, 
परशुराम जग पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में। 

कर्ण झपट कर उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर, 
बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर। 
परशुराम बोले- 'शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी, 
सहता रहा अचल, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।' 

तनिक लजाकर कहा कर्ण ने, 'नहीं अधिक पीड़ा मुझको, 
महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको? 
मैंने सोचा, हिला-डुला तो वृथा आप जग जायेंगे, 
क्षण भर को विश्राम मिला जो नाहक उसे गँवायेंगे। 

'निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा, 
छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचायेगा? 
पर, यह तो भीतर धँसता ही गया, मुझे हैरान किया, 
लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया।' 

परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में, 
फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में। 
दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- 'कौन छली है तू? 
ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?

'सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है, 
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है। 
सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही, 
बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही। 

'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता, 
किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता? 
कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है? 
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है। 

'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा, 
परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।' 
'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' गिरा कर्ण गुरु के पद पर, 
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर! 

'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ, 
जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ 
छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ, 
आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ। 

'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का, 
तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का। 
पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे, 
महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे। 

'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी, 
करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी। 
पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ, 
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।

'छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है, 
ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है। 
पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर, 
अब जाऊँगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर? 

'करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा, 
एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा। 
गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊँगा, 
पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा? 

'यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी? 
प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी। 
दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं? 
अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं? 

'परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा, 
बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा। 
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें, 
इन्हीं पाद-पद्‌मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।' 

लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर, 
दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर। 
बोले- 'हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है? 
निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है? 

'अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था, 
मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था। 
देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया, 
पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।

'तूने जीत लिया था मुझको निज पवित्रता के बल से, 
क्या था पता, लूटने आया है कोई मुझको छल से? 
किसी और पर नहीं किया, वैसा सनेह मैं करता था, 
सोने पर भी धनुर्वेद का, ज्ञान कान में भरता था। 

'नहीं किया कार्पण्य, दिया जो कुछ था मेरे पास रतन, 
तुझमें निज को सौंप शान्त हो, अभी-अभी प्रमुदित था मन। 
पापी, बोल अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचालक है, 
परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बालक है। 

'सूत-वंश में मिला सूर्य-सा कैसे तेज प्रबल तुझको? 
किसने लाकर दिये, कहाँ से कवच और कुण्डल तुझको? 
सुत-सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं? 
जलते हुए क्रोध की ज्वाला, लेकिन कहाँ उतारूँ मैं?' 

पद पर बोला कर्ण, 'दिया था जिसको आँखों का पानी, 
करना होगा ग्रहण उसी को अनल आज हे गुरु ज्ञानी। 
बरसाइये अनल आँखों से, सिर पर उसे सँभालूँगा, 
दण्ड भोग जलकर मुनिसत्तम! छल का पाप छुड़ा लूँगा।' 

परशुराम ने कहा-'कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे, 
तुझे पता क्या सता रहा है मुझको असमञ्जस कैसे? 
पर, तूने छल किया, दण्ड उसका, अवश्य ही पायेगा, 
परशुराम का क्रोध भयानक निष्फल कभी न जायेगा। 

'मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ, 
पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ। 
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा, 
है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।

कर्ण विकल हो खड़ा हुआ कह, 'हाय! किया यह क्या गुरुवर? 
दिया शाप अत्यन्त निदारुण, लिया नहीं जीवन क्यों हर? 
वर्षों की साधना, साथ ही प्राण नहीं क्यों लेते हैं? 
अब किस सुख के लिए मुझे धरती पर जीने देते हैं?' 

परशुराम ने कहा- 'कर्ण! यह शाप अटल है, सहन करो, 
जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर ले सादर वहन करो। 
इस महेन्द्र-गिरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है, 
मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मझसे ही पाया है। 

'रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है? 
एक शस्त्र-बल से न वीर, कोई सब दिन कहलाता है। 
नयी कला, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन, 
नये भाव, नूतन उमंग से, वीर बने रहते नूतन। 

'तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी, 
इनके रहते तुम्हें जीत पायेगा कौन सुभट भारी। 
अच्छा लो वर भी कि विश्व में तुम महान् कहलाओगे, 
भारत का इतिहास कीर्ति से और धवल कर जाओगे। 

'अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को, 
रहने देते नहीं यहाँ पर हम अभिशप्त किसी जन को। 
हाय छीनना पड़ा मुझी को, दिया हुआ अपना ही धन, 
सोच-सोच यह बहुत विकल हो रहा, नहीं जानें क्यों मन? 

'व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है। 
इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है। 
अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो। 
देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।

'आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय, 
मुझसे कर विद्रोह तुम्हारी मना रहा, जाने क्यों, जय? 
अनायास गुण-शील तुम्हारे, मन में उगते आते हैं, 
भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं। 

जाओ, जाओ कर्ण! मुझे बिलकुल असंग हो जाने दो 
बैठ किसी एकान्त कुंज में मन को स्वस्थ बनाने दो। 
भय है, तुम्हें निराश देखकर छाती कहीं न फट जाये, 
फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट जाये।' 

इस प्रकार कह परशुराम ने फिरा लिया आनन अपना, 
जहाँ मिला था, वहीं कर्ण का बिखर गया प्यारा सपना। 
छूकर उनका चरण कर्ण ने अर्घ्य अश्रु का दान किया, 
और उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया। 

परशुधर के चरण की धूलि लेकर, उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर, 
निराशा सेविकल, टूटा हुआ-सा, किसी गिरि-श्रृंगा से छूटा हुआ-सा, 
चला खोया हुआ-सा कर्ण मन में, 
कि जैसे चाँद चलता हो गगन में।

रामधारी सिंह 'दिनकर'

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