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माँ की झप्पी

आज जब सोचता हूँ तो ये पढ़ना -लिखना बेकार सा लगता है 
"माँ-बाबूजी " से दूर इस झूठी फरेब दुनिया में जीना भार सा लगता है 
जिंदगी बनाने के लिए   ,घर से दूर निकल आया हूँ 
सपने हकीकत में बदलने  ,अपनों को दूर छोड़ आया हूँ 

आज कल न जाने क्यूँ ,मुझें अपने गांव की   याद सताती है 
अपने खेत खलिहान और उस मकान की याद आती है !!

आज जैसे ही खाने को बैठता  हूँ ,माँ की तस्बीर सामने आ जाती है ,
और पता न क्यूँ मेरी  आँखे,बरबस  भर आती हैं !!

आज बार बार याद आ रही माँ बाबूजी की प्यार भरी बातें 
मेरे बीमार होने पे माँ द्वारा जग कर गुजारी गयी हर एक रातें 

आज बहुत मिस कर रहा ,अपने भाईयों  का प्यार दुलार 
याद आ रही छोटे भाई से की गयी ओ हर मीठी तकरार 

आज माँ की जादू की झप्पी पाने का जी चाहता है 
पता न क्यूँ अभी इसी वक्त ,अपने घर लौट जाने का जी चाहता है \"crying\"

रंजन कुमार पंडित 

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