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जिंदगी........एक अधूरा सफ़र

अध्याय-2

15-05-1989” की तारीख थी जब मैंने अपना करियर शुरू किया, अपना ऑफिस जिसमें मैंने जॉब शुरू की, जिस दिन मैं अपने ऑफिस में गर्इ तेरे पापा छुट्टी पर थे, तो मुझे तेरे पापा का ही कम्प्युटर मुझे दे दिया गया, मेरे सीनियर ने ये भी कहा कि, पिया जब तक राज नहीं आते तब तक तुम उनका कम्प्यूटर इस्तेमाल करो ।“ थोड़ी देर बाद दूसरे सीनियर अधिकारी ने बताया, कि राज का कम्प्यूटर तुम ही इस्तेमाल करोगी, क्योंकि राज को उनके खराब व्यवहार की वजह से निकाला जा रहा है ।“ सीनियर के द्वारा ऐसा बताने पर मैं सोचने लगी कि पता नहीं कैसे-कैसे लोग होते हैं इस दुनिया में, जो अपने काम से भी प्यार नहीं करते, और अपने सीनियर अधिकारियों से भी बदतमीजी से पेश आते हैं । लेकिन साथ-साथ में ये भी सोच रही थी, कि बदतमीज तो होगा ही, कहीं मुझे कुछ ना बोल दे कि मेरा कम्प्यूटर क्यूं इस्तेमाल कर रही हो वगैरह-वगैरह ।

खैर तेरे पापा 17-05-1989 को वापस आये और आते ही मुझसे आकर बोले, सुप्रभात मैडम, कैसे हो । काफी हंसमुख लग रहे थे । और उनकी शक्ल और चेहरे के भाव देखकर कहीं से ऐसा नहीं लग रहा था कि तेरे पापा ने अपने ऑफिस में किसी से बदतमीजी की होगी। लेकिन जब ऑफिस में सब लोग आ चुके थे, तब उन्होंने अपने एक दोस्त से बात की और बोले कि सर अब बहुत हो गया, मैं इस ऑफिस में और काम नहीं कर सकता । मैं ये सब सुन रही थी, क्यूंकि मैं इनके बिल्कुल बगल वाली कुर्सी पर बैठी-बैठी चाय का लुत्फ ले रही थी ।

कुछ देरी बाद उन्होंने मेरे से पूछ ही लिया कि “आपका नाम क्या है, तो मैं चौंक गर्इ। लेकिन जिस तरीके से उन्हौने नाम पूछा था, मुझे अच्छा लगा उनका नाम पूछने का तरीका ।क्योंकि मेरे कुछ न बोलने पर उन्होने दोबारा मुझसे पूछा था, कि “पिया, आपका नाम क्या है।” अब उनको नाम तो पहले से पता चल गया था, और मैने भी उनके ही तरीके से जवाब दिया कि पहले याद आने दो फिर बताती हूँ, सर। कुछ देर तक हमने सामान्य बात की, लेकिन मैंने पहले दिन ही उनसे पूछ लिया कि, क्यों जा रहे हो काम छोड़कर, तो वे बोले बस इतना ही था यहाँ काम करना, और उसके बाद दूसरी बातों में लग गये । लेकिन पता नहीं क्यूँ मुझे उनके बारे में जानने की इच्छा होने लगी, लेकिन मैं उनके बारे में किससे पुछती, क्योंकि मुझे उस ऑफिस में उनके (तेरे पापा) के सिवाय कोर्इ भी तो बात नहीं करता था, हाँ एक सहकर्मी (समा) ने भी ऑफिस जॉइन किया था मेरे साथ ही, लेकिन उसे भी तो तेरे पापा के बारे में कुछ नहीं पता था।

मैं उनके बारे में इसलिए जानना चाहती थी कि जैसा मुझे बताया था कि तेरे पापा का व्यवहार खराब है, ऐसा उनके व्यवहार से लगता नहीं था, क्योंकि उनके बात करने का तरीका और ऑफिस के अन्य लोगों से मिलनसार व्यवहार, ये सब उनके बारे में बतायी गयी बातों से बिल्कुल अलग था।

मैं उनके बारे में रोज कुछ ना कुछ नया जानने की कोशिश करती थी, में उनके बिल्कुल बगल वाली कुर्सी पर ही तो बैठती थी, और राज उसका तो काम ही दूसरों को हँसाना था, क्योंकि उनके जो कटाक्ष होते थे, वो कटाक्ष हसा ही देते थे, फिर उन्हीं कटाक्षों के बीच में मैं उनसे कुछ पूछ लेती थी, तो वे मुझे बता देते थे, जो भी मैं पुछती थी। उनका पहला काम था ऑफिस में आने के बाद न्यूज पेपर पढ़ना, और देश-विदेश की खबर लेना, और उनके हस्ताक्षर (सिग्नेचर) जो इलैक्ट्रॉनिक थे, मैं ही किया करती थी उनके बिना पूछे क्योंकि मुझे दूर से आना होता था, तो अक्सर ऑफिस में मैं जल्दी आ जाया करती थी, धीरे-धीरे दिन निकलते गये और मेरा और राज का बातों का सिलसिला भी बढ़ गया था ।

हमारे बीच बहुत सारी बातें होने लग गईं थी, इन बातों से मैं उनके बारे में बहुत कुछ जान गर्इ थी, और मुझे उनसे बातें करना अच्छा भी लगने लगा था । और इन बातों के बीच 20 दिन कब निकल गये पता ही नहीं चला, मुझे तो बताया गया था कि राज एक महीने बाद चला जायेगा और राज जो काम करता है, उसके जाने के बाद मुझे ही करना है । 20 दिन बाद मुझे खयाल आया कि राज अब 10 दिन बाद चला जायेंगे, तो मे सोचने लगी कि मेरा मन कैसे लगेगा, पर कविता ऐसा अभी तक हमारे बीच कुछ नहीं हुआ था, जिसको लेकर मैं और तेरे पापा ज्यादा कुछ सोचते, लेकिन अचानक ही पता चला की हमारी ऑफिस में से एक सीनियर अधिकारी जा रहे हैं, और काम इतना था कि राज का जाना मना हो गया था । या यूं कहें कि उनके जाने के बाद राज ने ना जाने का मन बना लिया था।

कविता, वास्तव में मुझे उस दिन अच्छा लगा था कि राज मेरे ही साथ काम करेंगे, पता नहीं राज ने एक महीने में अपनी बातों से मुझे दोस्त बना लिया था। अब जब वो गये नहीं तो हमारी ढेर सारी बातों का सिलसिला आगे बढ़ने वाला ही था, क्योंकि अब मुझे पता चला कि ऑफिस से दूसरा अधिकारी चला गया है और राज नहीं जा रहा है, तो अनायास ही उनसे बातें करने का मन करने लगा था, मैं कल तक अपने आप को नहीं रोक पा रही थी, और मैंने राज को फोन मिला दिया, पता नहीं क्यों अच्छा लग रहा था, अजीब सी खुशी हो रही थी उनसे बात करके, बस 25-26 दिन पहले ही तो मिली थी उनसे, और मैंने बातों-बातों में उनसे ये भी कह दिया था कि “राज, अगर तुम चले जाते तो क्या तुम्हारा मन लगता मेरे बिना” ये बात मैंने कही थी, ये मुझे दूसरे दिन ऑफिस में पता चली, कि मैंने ऐसा भी कुछ कहा था, क्योंकि उन्होंने कहा कि पिया तुमने ऐसा बोला था कल।

मुझे थोड़ा अजीब लगा था जब लेकिन दूसरे दिन उनका पिया कहना मुझे बहुत अच्छा लगा था। अब हमारी बातें ज्यादा होने लगी थी पहले से, अब हम ऑफिस से बाहर की बातें करने लगे थे, अपने परिवार से जुड़ी बातें भी आपस में बताने लगे थे । अच्छा लगने लगा था हमें बात करना, खाना भी साथ में खाने लग गये थे, और जब पहली बार उनके साथ खाना खाया तो पता चला कि तेरे पापा नमक वाली चपाती (रोटी) खाते थे, उन्हें वो चपाती पसन्द थी जिनमें नमक होता था, क्योंकि राज राजस्थान से ताल्लुक रखते थे, और हमारे यहाँ चपातियों में (आटा लगाते वक्त ) नमक डालने का प्रचलन नहीं था।

दूसरे दिन मैं खाना लेकर आयी थी उस खाने में जो चपातीं थी, उनमें नमक था और मैंने सुबह ही राज को बता दिया था कि आज मेरी चपातियों में भी नमक है । हालांकि उन्होंने पूछा नहीं था कि तुम्हारे यहाँ तो ऐसा खाना नहीं बनता, लेकिन मैंने ही उन्हैं बता दिया था कि मेरी दीदी ने गलती से नमक डाल दिया था, क्योंकि उनके(दीदी कि ससुराल में) यहाँ भी चपातियों में नमक होता था । लेकिन सच्चार्इ तो ये थी, कि मैंने सुबह - सुबह जब दीदी खाना बनाने वाली थी, उसी समय उनके रसोर्इ में पहुँचने से पहले ही आटे में नमक डालकर आटे को लगा दिया था । मुझे पता ही नहीं चल पा रहा था कि क्यों मुझे राज की हर बात अच्छी लगती है। लेकिन उस दिन राज ने मेरे साथ खाना नहीं खाया किसी कारणवश, मुझे दोपहर के खाने के बाद राज पर ऐसा गुस्सा आ रहा था कि जैसे उन्होंने कितना बड़ा गुनाह कर दिया है। मैं सोच. रही थी कि राज एक बार बोल दे कि पिया तुम्हारे साथ खाना नहीं खा पाया, या समय नहीं निकाल पाया, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं । और उसी दिन शाम के लगभग 6 बजे का समय था दिन था, 7 जुलार्इ 1989, राज ने मुझसे कहा “पिया चलो ऑफिस के बाहर चाय पीकर आते हैं, काम करते-करते थकान हो गर्इ है।“

उनका ये कहना था कि मेरा सारा गुस्सा जैसे कही उड़न छू हो गया, पहली बार राज ने कहा था मुझसे, कि चाय पीने चलो वो भी ऑफिस के बाहर। लेकिन जब हम चाय पी रहे थे और मैं सोच रही थी, कि राज मुझसे कुछ तो पूछें खाने के लिए, क्योंकि मैं करीब-करीब दो महीने में राज के बारे में सब कुछ जान गर्इ थी।

राज ने बताया कि जयपुर में कोर्इ उनकी दोस्त है, जब वे पढ़ार्इ करते थे तब की दोस्त थी उनकी, ऐसा सुनना था मेरा, और फिर राज के साथ सही से चाय भी नहीं पी पायी थी । मुझे एक ही दिन दो बार गुस्सा आया था, सोच रही थी चाय कि कप राज को दे मारू l अपने आप पर भी गुस्सा आ रहा था, कि मैं किसी के बारे में बिना कुछ जाने और बिना कुछ सोचे समझे क्यूं इतना विश्वास कर रही हूँ । और दो ही महीने में ऐसा क्या हुआ जो आज तक किसी को अपने आगे भाव न देकर (यहाँ तक कि मैं अपने मम्मी-पापा की भी ज्यादा नहीं सुनती थी, क्योंकि में जानती थी कि मेरे मम्मी–पापा मुझे प्यार करते हैं, इसलिए उन्हे ही मेरी माननी पड़ेगी) उसके आगे अपने को ज्यादा भाव नहीं दे रही थी।

उस दिन मैं जब घर पहुँची तो मैंने किसी से बात नहीं की, यहां तक कि खाना भी अनमने मन से खाया था, लेकिन मैं अपने गुस्से को दिखाना नहीं चाहती थी । क्योंकि कोई मुझसे पूछता कि क्यूँ गुस्सा हो तुम, तो में क्या बताती, इसलिए थोड़ी देर बाद मैने अपने आपको समझा लिया । और मुझे खुद को पता ही नहीं चल पा रहा था कि मैं क्या करूँ, राज को भी कुछ बोलूं तो क्या बोलूं और कैसे बोलूं । सोचते-सोचते ही उस दिन मुझे नींद आ गयी ।

लेकिन जब दूसरे दिन ऑफिस गर्इ तो राज फिर से सामान्य बात करने लग गए, दूसरे दिन हमने खाना भी साथ में खाया और काफी सारी बातें की। तीन-चार दिन के बाद मैंने उन्हें बोला कि चलो बाहर चलते हैं, आज मेरा सिर में दर्द हो रहा है, तो जब हम बाहर निकले तो राज ने कहा “पिया तुम्हारा दर्द ज्यादा है, तो मैं दर्द निवारक गोली ले आता हूँ।” मैंने कहा इतना ज्यादा भी नहीं है, बस चाय पीते हैं, क्यूँकी सच में तो मुझे दर्द हो ही नहीं रहा था मैं तो बस उनसे चायके लिए कह नहीं पा रही थी, इसलिए मैंने सिरदर्द का तो बहाना बनाया था।

12 जुलार्इ 1989 का दिन था जब मुझे पता चला कि कल यानी 13 जुलार्इ को राज का जन्मदिन है, और 13 जुलार्इ को राज ने अपनी ऑफिस के दोस्तों के लिए एक छोटी सी पार्टी दी थी, जिसमें मेरा भी नाम था । लेकिन मैं उस पार्टी में शामिल नहीं हुर्इ क्योंकि मैं चाहती थी कि राज मुझे, सिर्फ मुझे पार्टी दे अलग से। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, और फिर दो-चार दिन निकलने के बाद जन्मदिन की बातें पुरानी सी हो जाती हैं, और फिर मैं भी ज्यादा कह नही पायी थी, क्योंकि मुझे भी कर्इ किलोमीटर जाना पड़ता था रोज अपने घर के लिए।

खैर बीच-बीच में जयपुर वाली दोस्त के बारे में पूछती रहती थी, और उनकी बातों से पता चल गया था, कि शायद कोर्इ सामान्य दोस्त ही है, और अगर कुछ होगा भी तो अब कुछ नहीं है, क्योंकि तेरे पापा की बातों से ऐसा सब पता चल जाता था। मुझे राज पर भरोसा होता जा रहा था और शायद राज भी मेरी तरफ झुकते जा रहा थे।

इसी बीच ऑफिस में नये नियम लागू हो गये थे, और हम दोनों को अलग-अलग टीम (सेक्सन) में बाँट दिया। हालांकि अब हमारे लिए ये ज्यादा मायने नहीं रखता था कि हम ऑफिस में किस जगह बैठे हैं । क्यूंकि मुझे और तेरे पापा राज को घंटों बतियाना ही था। हमारे बात करने का तरीका होता था, या तो तेरे पापा मेरे पास आकर बैठ जाते थे, या फिर मैं उनके पास बैठी होती थी, या फिर हम ऑफिस के फोन से ही बात करते रहते थे।

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