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जिंदगी........एक अधूरा सफ़र

अध्याय-7

मेरा वक्त है तुम्हारे पास उसे लौटा दो” उनका गला भर आया था, राज इधर-उधर देखने लगे, अपनी आँखों को मुझसे छिपाने की कोशिश करने लग गये। “राज मेरे पास कुछ नहीं है तुम्हारा, और यदि मैंने तुमसे वक्त मांगा था, तो दिया भी था, इसलिए हिसाब बराबर, अब मुझे जाने दो”।

पिया मत जाओ ना, मुझे छोड़कर अबकी बार उनकी आँखें आंसुओं को नहीं रोक पायी थी, आंसुओं के रूप में उनका दर्द बाहर आ गया था। उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके आंसू नहीं रुक रहे थे, और उनकी खामोशी मुझसे बार-बार पूछ रही थी, क्या तुम मेरे साथ सही कर रही हो”।

मैं भी चाहती थी, कि अब और नहीं, और आंसू पोंछ दूँ राज के आंसुओं को अपने हाथों से, और समा जाऊँ राज के अन्दर हमेशा के लिए, उनके प्यार की गहरार्इ में डूब जाऊँ और भूल जाऊँ अपना वजूद, कर दूँ अपनी ज़िदंगी राज के नाम ।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बस राज को इतना कह पायी, राज तुम सो जाओ घर जाकर, मुझे समय दो थोड़ा सा सोचने का”

क्या इतना प्यार करते थे, राज मुझसे। नहीं देखा जा रहा था, उनका दर्द अब मुझसे, मैं राज से फिर से बात करना चाहती थी। लेकिन अब तक काफी समय निकल चुका था, मैं अब पहले जैसा सोच नहीं पा रही थी, अब मुझे राज के अलावा अपना परिवार, अपने मम्मी-पापा की इच्छाएँ और उनकी चाहत सब कुछ दिख रही थी, और वो राज के प्यार पर भारी पड़ रही थीं।

खैर अगले दिन से मैंने राज से थोड़ी-थोड़ी बातें शुरु कर दी थी, क्योंकि अब मुझसे उनका दर्द और उनका वो उदास और निराश चेहरा देखा नहीं जा रहा था। मैं राज से काम को लेकर थोड़ी-थोड़ी बातें करने लग गयी थी। उस दिन के बाद से राज थोड़ा सा खुश रहने लगे थे।


 

मैं राज को जिस काम के लिए बोलती, राज बिना कुछ शिकायत किये कर देते थे, कभी-कभी मैं उन्हें कुछ बोल देती तो बस मुस्कुरा के उसे टाल देते थे। और हमेशा मुझसे बातें करने के नये-नये बहाने ढँढ़ने लग गये थे, मैं भी ये बात जानती थी, लेकिन अब उन्हें कुछ बोलती नहीं थी। इसी तरह कुछ वक्त निकल गया। राज का चेहरा अब उदास नहीं था, अब वो थोड़ा सा हँसने भी लग गये थे।

एक दिन मैंने उन्हें ऐसे ही हंसकर कह दिया था, कि मेरे लिए खाना ले आना तो खुद जल्दी उठकर दो सब्जियाँ बनाकर लाए थे। राज के लिए मेरी खुशी से बड़कर और कुछ भी नहीं था, मुझे भी उनका हंसता हुआ चेहरा अच्छा लगता था। और अब मैं उन्हें रुलाना भी नहीं चाहती थी।

लेकिन अब तक मेरा सच कुछ और बदल चुका था, मैं अपने पापा को बोल चुकी थी, कि जो लड़का आप पसन्द करेंगे वो ही मुझे पसन्द होगा। मेरे पास दो रास्ते थे, जिसमें से किसी एक को चुनना था, एक तरफ थे राज, जो मुझसे बहुत अधिक प्यार करते थे, और दूसरी तरफ थे मेरे पापा, जिन्हें मैं प्यार भी करती थी, और उन्हें कह भी चुकी थी कि आपकी पसन्द ही मेरी पसन्द होगी।

काश मैंने राज से अपने रिश्ते को अपने पापा को बता दिया होता तो शायद मेरी जिंदगी आसान होती, और राज को दर्द नहीं पहुँचाया होता। लेकिन मैंने राज से अपना रिश्ता पापा को नहीं बताया, बस मुझे फैसला करना था कि मुझे कहाँ जाना है।

राज’ और ‘पापा’

राज, जो मुझसे बेहद प्यार करते थे। उनकी सोच सिर्फ मेरे इर्द-गिर्द घूमती थी, प्यार जो करते थे मुझसे। राज पर मेरे इश्क का जुनून सवार था, उन्होंने अपने-आप को बदल लिया था मेरे लिए, और यही बात मुझे डराती थी, कि जब राज ने मेरे लिए अपने आप को बदल लिया तो कहीं और बदलाव आ जाएं उनके जीवन में, और फिर से बदल जाए।

उस समय मैं सिर्फ वही सोच रही थी, जो मेरा दिल कह रहा था, और ये दिल कितना नादान होता है। समय की परिस्थितियों के अनुसार अपनी सोच को बदल लेता है, और हम सोचते हैं कि शायद वही सही हो, लेकिन ये नादान दिल कभी भी वहाँ नहीं पहुँचाएगा जहाँ आप जाना चाहते हो। वो तो समय होता है, जो आपको कही ले जाना चाहता है और ले भी जाता है, और हर इन्सान को वही जाना पड़ता है, जहाँ आपको समय ले जाना चाहता है, इसके जिए आपका दिल और दिमाग सोचे या ना सोचे, बस फर्क इतना होता है, जहाँ आपको समय लेकर गया है, उसी के लिए यदि दिल और दिमाग ने सोचा है, तो इन्सान को वहाँ पहुँचने में खुशी मिलती है। और यदि इन्सान ने अपने दिमाग से कहीं औन जाने की सोच रखी है, या अपनी धारणा बना रखी है, तब उन धारणाओं को बदलने में बहुत समय लग जाता है। और वो बदलाव का समय ही इन्सान को दु:ख पहुँचाता है।

शायद मेरा और राज का रास्ता ही अलग हो, उस समय यही मेरी धारणा थी, क्योंकि मैं र्इश्वर नहीं हूँ, जो तय कर सकू कि क्या सही है, और क्या गलत।

और दूसरी तरफ मेरे पापा थे, पापा भी मुझे बहुत प्यार करते थे, और उन्हें मैं भी प्यार करती थी, और मैं पापा को कह भी चुकी थी, कि आपकी पसन्द ही मेरी पसन्द होगी। इसी समय में पापा मेरे लिए अच्छा सा रिश्ता ढूँढ़ रहे थे। पापा वो व्यक्ति थे जिन्होंने जीवनभर हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी ख्वाहिशों को मारा था। जबसे मुझे याद है, वो सिर्फ हमारे लिए अपने परिवार के लिए जीते थे। पापा से राज के रिश्ते को मैं बताना नहीं चाहती थी।

शायद तब मैंने राज के बारे में पापा से बात की होती तो, पापा उस रिश्ते को मान लेते, क्योंकि पापा तो सिर्फ हमारी खुशी के लिए ही जीते थे। और मेरी खुशी से बढ़कर और कोर्इ खुशी नहीं होती थी उन्हें।

मैंने समय की नहीं सुनी, मैंने सनी केवल अपने दिमाग की, इसलिए मुझे पापा ओर राज में से एक ही चुनना था। आाखिरकार मैंने पापा को चुन लिया, राज का प्यार हार गया।

राज थोड़ा सा खुश रहने लगे थे, उस समय, लेकिन अब मुझे राज से रिश्ता खत्म करना ही था। किसी भी स्थिति में, अब मैं राज को और दर्द नहीं देना चाहती थी। मैं जानती थी राज से बातें बन्द करना, उन्हें फिर से परेशान कर देगा, इसलिए मैं उनसे धीरे-धीरे बातें कम करके हमारी दोस्ती (जो बहुत पहले खत्म हो चुकी थी, लेकिन राज की वजह से चल रही थी) को यहीं खत्म कर देना चाहती थी।

मैं ये भी जानती थी कि मुझे इस दोस्ती को खत्म करने के लिए क्रूर होना पड़ेगा। राज की परेशानियों से ध्यान हटाना होगा, यदि मैं राज पर ध्यान रखती, तो शायद उनकी परेशानी मुझसे देखी नहीं जाती, क्योंकि राज ने जो गुस्सा मुझ पर निकाला था, उसके बदले वो सैकड़ों बार माफी मांग चुके थे। और उन्होंने हर पल को घंटों की तरह निकाला था। मैं नहीं चाहती थी कि राज दोबारा और अधिक परेशान हो, इसलिए सोच लिया था कि यदि अभी से रिश्ता खत्म करूँगी तो शायद इतना परेशान ना हो जितने बाद में हों।

अब मैंने राज से बातें करना छोड़ दिया था, लेकिन कुछ राज पूछते या कहते तो उन्हें जवाब दे दिया करती थी या फिर सुन लेती थी। मेरा मन करता था कि मैं भी राज से बातें करूँ, लेकिन मुझे रोकना पड़ता था अपने आपको, क्योंकि उस वक्त शायद मेरे लिए यही सही था।

धीरे-धीरे बातें कम होना शुरु हो गर्इ थी, और मेरी तरफ से तो बिल्कुल ही बन्द हो चुकी थी। राज को लगने लगा था, शायद मैं नाराज हो जाऊं, इसलिए वो भी रोज बात नहीं करते थे, वो भी दो से तीन दिनों में मुझसे बात करते थे, और इसी तरह जून, 1990 पूरा महीना इसी तरह निकल गया।

मैं राज की कमजोरी बन चुकी थी, राज मेरे लिए सारी हदें पार कर सकते थे । आखिरकार राज ने 2, जुलार्इ 1990 को सुबह मुझसे पूछ ही लिया, पिया, क्या हुआ है, तुम्हें” मैंने कुछ जवाब नहीं दिया, उनके 2-3 बार पूछने पर बस इतना ही कहा “राज तुम्हारे अलावा मेरी और भी जिंदगी है, वहाँ भी वक्त देना पड़ता है”। मेरी बातों से राज समझ गये थे कि मैं अब हमारी दोस्ती और भविष्य के किसी भी रिश्ते को यही खत्म करना चाहती थी।

उस दिन के बाद राज मुझसे रोज मुझसे कुछ ना कुछ पूछते थे, लेकिन अब मेरा जवाब भी मिलना बंद हो गया था। जब मैं राज से बात नहीं करती थी, तो राज का परेशान चेहरा मुझसे देखा नहीं जाता था, और बात करती तो मेरा दिल कहता “पिया तुम गलत कर रही हो राज के साथ, या तो राज की हो जाओ या फिर छोड़ दो राज को अपने हाल पर।“

राज कभी भी नहीं चाहते थे, कि हमारा रिश्ता खत्म हो, और दूसरी तरफ मेरी जिद। राज की खामोशी मुझसे बार-बार यही पूछती थी, आखिर क्यों कर रही हो ये सब”, उनकी नज़रें मुझे बुलाती थी। इसलिए मैंने उनसे नज़रें मिलाना ही छोड़ दिया था। राज की बेचैनी भी मुझसे देखी नहीं जाती थी, इसलिए उनका चेहरा भी देखना छोड़ दिया था, मेरे लिए भी इतना आसान नहीं था, लेकिन उनसे जुड़ी हर चीज से ध्यान हटाना चाहती थी।

ऑफिस के बहुत से लोग भी अब जानने लग गये थे, कि अब राज और पिया की दोस्ती पहले जैसी नहीं रही है। कुछ लोगों ने मुझसे पूछा भी, लेकिन मेरा एक जवाब था, कि काम की वजह से समय नहीं दे पाती। जानते सब थे, लेकिन कोर्इ खुले में कुछ ज्यादा पूछ नहीं सकता था।

12-07-1990, राज ने फिर से कोशिश की मुझसे बात करने की, वो मेरे पास आकर बैठ गये, उन्होंने बहुत चीजें पूछी और कहीं, लेकिन मैं उन्हें कुछ नहीं बोली। राज मेरे जवाब का इन्तजार कर रहे थे, शायद तभी काम करते समय मेरा हाथ फिसल गया टेबल से और उससे मेरे हाथ पर मामूली सी चोट आ गयी, चोट इतनी थी, कि यदि मैंने हाथ पर ध्यान नहीं दिया होता या हाथ को नहीं देखा होता तो, शायद पता भी नहीं चलता। लेकिन ये राज को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, राज वहाँ से उठकर चले गये। पाँच मिनट बाद फिर से आए और मुझे दर्द निवारक गोली देते हुए बोले “ध्यान रखा करो अपना, लापरवाह मत बनो मेरी तरह”।

कितनी परवाह थी मेरी, ये मेरे सिवाय और कोर्इ नहीं जानता था ।

13-07-1990, राज का जन्मदिन था। मैं चाहती थी कि उन्हें फोन करके बधार्इ दूँ, लेकिन रोक लिया मैंने अपने आपको, ऑफिस आने के बाद 1 घंटे तक रोके रखा। मन ही मन सोचने लगी कि हम जिसे जानते नहीं उसे भी किसी खास दिन पर बधार्इ दे देते हैं, फिर राज तो मेरा दोस्त था। रिश्ता खत्म करना एक अलग चीज थी, और उन्हें, उनके इस खास दिन पर बधार्इ देना एक अलग चीज, इसलिए चली गर्इ उनके पास।

राज शान्त बैठे थे अपनी कुर्सी पर, उन्हें देखकर कोर्इ भी नहीं कह सकता था, कि राज का आज जन्मदिन है। कितने खुश थे अपने पिछले जन्मदिन पर, और दूसरी तरफ आज, कोर्इ रौनक ही नहीं थी उनके चेहरे पर, लग रहा था जैसे अपने आप से कुछ बातें कर रहे थे ।

मैंने उनकी कुर्सी हिलार्इ, राज ने पीछे मुड़कर देखा, जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें आपके लिए, काम की वजह से ध्यान ही नहीं रहा”, इतना कहकर अपना हाथ बढ़ा दिया राज की तरफ, राज की खामोशी मुझसे बहुत कुछ कह रही थी लेकिन कुछ बोले नहीं, अब धन्यवाद नहीं बोलोगे मुझे” मैंने कहा। “धन्यवाद पिया”, मैं राज के पास और खड़ी नहीं रह सकी, अपने स्थान पर वापस आ गर्इ।

मैंने बस औपचारिकताऐं पूरी की थी, ये बात मैं और वो दोनों ही जानते थे।

दोपहर के खाने के बाद ठीक 2 बजकर 16 मिनट पर राज का फोन आया, एक विनती कर रहा हूँ, केवल आज के लिए” मैंने उन्हें कुछ जवाब नहीं दिया और फोन रख दिया।

2 बजकर 17 मिनट पर राज अपने हाथों से समझाना चाह रहे थे कि एक बार सुन लो, लग रहा था, जैसे हाथ जोड़ रहे हों, मैंने ध्यान नहीं दिया उन पर।

2 बजकर 43 मिनट “पिया, कुछ बोलोगी भी या विनती भी नहीं कर सकता”

3:02 बजे “प्लीज यार कुछ तो बोलो”

3:03 बजे “केवल आज मान जाओ”। इस पर मेरा जवाब था, नही”।

शाम 3 बजकर 5 मिनट पर फिर फोन आया राज का “पिया, आज आखिरी बार बोल रहा हूँ, विनती कर रहा हूँ यार आपसे, सिर्फ आज मान जाओ, वो भी सिर्फ 5 मिनट के लिए”। थोड़ा रुकने के बाद राज बोलते हैं, पिया आज के लिए भूल जाओ ना सब कुछ”, आज के बाद राज तुम्हें कभी फोन नहीं करेगा, लेकिन आज इतना कठोर मत बनो यार” मैंने फिर फोन रख दिया, राज की आवाज में दर्द झलक रहा था, ना तो राज को मैं सुन पा रही थी, और ना ही कुछ बोलना चाहती थी, इसलिए बार-बार फोन रखना पड़ रहा था मुझे। कहती भी क्या राज को।

शाम को 3:31 बजे राज का फिर फोन आया, उस समय मैं खड़ी थी, फोन उठाकर कान से सटा लिया था, लेकिन ध्यान राज पर ही था, मैं चाहकर भी अपना ध्यान राज से नहीं हटा पा रही थी।

यदि आपने सोच ही लिया है, कि कभी भी मुझे माफ नहीं करोगी तो फोन रख दो, जन्म दिन पर वादा करता हूँ, आपकी दोस्ती को राज भूल जाऐगा हमेशा के लिए”, मैंने कुछ जवाब नहीं दिया और कुछ देर बाद फोन रख दिया, लेकिन अपना ध्यान राज से नही हटा पायी थी, कुछ देर तक फोन राज के कान पर लगा हुआ था, थोड़ी देर बाद राज फोन को ऐसे देख रहे थे जैसे इसमें से आवाज आएगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

राज की आँखें लाल हो रही थी, अपने आपको सबसे छिपाना चाह रहे थे। मैं अब बैठ चुकी थी, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं राज मुझे देख न लें।

कुछ देर बाद मैंने राज को फिर देखना चाहा, लेकिन राज मुझे दिखार्इ नहीं दिये। शायद वो जा चुके थे, उस दिन, और नहीं रुक पाये थे, Share